रिपोर्ट: अंकिता
ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट का एक बड़ा अध्याय बंद हो गया। 15 अगस्त 2025 को सिडनी में 89 वर्ष की उम्र में बॉब सिम्पसन का निधन हुआ। यह वही नाम है जिसने बैटिंग, कप्तानी और कोचिंग—तीनों मोर्चों पर खेल का नजरिया बदल दिया। पुरानी पीढ़ी उन्हें ‘सिमो’ कहती थी; नई पीढ़ी उन्हें उस शख्स के तौर पर याद करती है जिसने ऑस्ट्रेलिया के आधुनिक वर्चस्व की नींव रखी।
आंकड़े कहानी कहते हैं, पर सिम्पसन का असर उनसे बड़ा था। 1957 से 1978 के बीच 62 टेस्ट, 4,869 रन औसत 46.81, 10 टेस्ट शतक—और साथ में 71 विकेट। स्लिप में उनकी पकड़ इतनी सटीक थी कि उन्हें क्रिकेट इतिहास के महानतम स्लिप कैचर्स में गिना जाता है। पर असली कमाल था दबाव की घड़ी में टिके रहना और बाकी 10 खिलाड़ियों के खेल को धीरे-धीरे ऊंचा उठाना।
दक्षिण अफ्रीका दौरे (1957) में टेस्ट डेब्यू के बाद शुरुआती सालों में वे कई बार शुरुआत को बड़े स्कोर में नहीं बदल सके। टर्निंग प्वाइंट 1964 में आया—ओल्ड ट्रैफर्ड, इंग्लैंड के खिलाफ 311 रन, लगभग 13 घंटे की मैराथन पारी। यह सिर्फ व्यक्तिगत मील का पत्थर नहीं था; इससे ऑस्ट्रेलिया ने एशेज बचाए और ड्रेसिंग रूम में एक संदेश गया—धैर्य और अनुशासन से बड़े मैच जीते जाते हैं।
1963-64 से 1967-68 के बीच कप्तान बनने के बाद उनका खेल और निखरा। कप्तान रहते उन्होंने अपने सभी 10 शतक ठोके—उस दौर में उनका औसत 54.07 पहुंचा, जो कप्तानी से पहले 33.67 था। यह परिवर्तन संयोग नहीं था; जिम्मेदारी ने उनकी बल्लेबाजी को फोकस और उद्देश्य दिया।
उनकी और बिल लॉरी की ओपनिंग जोड़ी टेस्ट इतिहास की सबसे भरोसेमंद साझेदारियों में रही। दोनों ने साथ मिलकर 62 पारियों में 3,596 रन बनाए और पहले विकेट के लिए 60 से ज्यादा का औसत रखा—उस समय के मानकों से यह असाधारण था। धीमी और झूलती इंग्लिश परिस्थितियों में भी यह जोड़ी रिटर्न-ऑन-इन्वेस्टमेंट की गारंटी थी।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती। 1968 में 11 साल के इंटरनेशनल करियर के बाद रिटायरमेंट लिया, पर 1977 में 41 साल की उम्र में वे फिर लौटे—जब वर्ल्ड सीरीज़ क्रिकेट के चलते ऑस्ट्रेलिया मुश्किल में था। उन्होंने भारत के खिलाफ घर में पांच टेस्ट और उसके बाद कैरिबियन में वेस्टइंडीज के खिलाफ पांच टेस्ट में टीम की कमान संभाली, और इस वापसी में दो और टेस्ट शतक जोड़े। उम्र से ज्यादा जरूरी था उनकी तैयारी और मैच मैनेजमेंट—वे दोनों कमाल के थे।
स्लिप फील्डिंग पर उनका असर तकनीक-आधारित था। वे कंधे और हथेलियों की पोजिशनिंग पर घंटों काम कराते, लो-कैचेस के लिए रिफ्लेक्स ड्रिल्स लगवाते और दिन में सैकड़ों कैच प्रैक्टिस कराना सामान्य मानते। आज जो ‘हाई-कैचिंग मशीनों’ और ‘रैपिड-फायर थ्रो-डाउन्स’ का चलन है, उसकी जड़ में यह सोच थी कि कैचिंग एक स्किल नहीं, एक सिस्टम है।
फर्स्ट-क्लास क्रिकेट में उन्होंने 16 साल की उम्र में न्यू साउथ वेल्स से डेब्यू किया। करियर के अंत में उनके नाम 21,029 रन और लेग-स्पिन से 349 विकेट दर्ज थे। तीनों स्किल-सेट एक खिलाड़ी में मिलना दुर्लभ है; यही वजह है कि वे टीम बैलेंस के लिहाज से हमेशा चयनकर्ताओं की पहली पसंद रहे।
खेल शैली की बात करें तो सिम्पसन की बल्लेबाजी क्लीन हेड-पोजिशन, देर से शॉट खेलना और गैप ढूंढने की कला पर टिकी थी। वे ‘बैड बॉल’ का इंतजार करते, और एक बार सेट होने पर पूरे दिन क्रीज पर समय बिताना उनके लिए थकाने वाला नहीं, सामान्य था। 13 घंटे की पारी आज के टी20 युग में लगभग अविश्वसनीय लगती है, लेकिन उसी धैर्य ने ऑस्ट्रेलिया को लंबे फॉर्मेट में पहचान दिलाई।
1986 में वे ऑस्ट्रेलिया के पहले फुल-टाइम कोच बने—एक ऐसे समय में जब टीम लगातार सीरीज हार चुकी थी और आत्मविश्वास लगभग खत्म था। एलन बॉर्डर कप्तान थे, लेकिन टीम को एक प्रोसेस चाहिए था। सिम्पसन ने वही दिया: स्पष्ट रोल, फिटनेस क्राइटीरिया, फील्डिंग-फर्स्ट सोच और विपक्ष के लिए विस्तृत डोज़ियर।
1987 का विश्व कप इस नए सिस्टम का पहला बड़ा प्रमाण बना। कोलकाता के इडन गार्डन्स में फाइनल में इंग्लैंड को हराकर ऑस्ट्रेलिया ने पहली बार वनडे विश्व कप जीता। सिम्पसन की योजना सरल थी—कंडीशन के हिसाब से संयमित शुरुआत, मध्य ओवरों में जोखिम-प्रबंधन और आखिरी 10 ओवर में शार्प फिनिश। उस समय वनडे में ‘मैच-अप्स’ और ‘फिनिशिंग फेज’ की चर्चा नई थी; ऑस्ट्रेलिया ने इसे प्रैक्टिस से आदत बनाया।
1989 में इंग्लैंड में एशेज की वापसी और 1995 में वेस्टइंडीज को उसी की सरजमीं पर हराना—ये दो पल ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट की आत्मा बदल देने वाले थे। 80 के दशक में वेस्टइंडीज को उसके घर में हराना लगभग असंभव माना जाता था। ऑस्ट्रेलिया ने यह कर दिखाया, और पूरी दुनिया को एक संदेश गया: यह टीम अब सिर्फ टैलेंट पर नहीं, मजबूत प्रक्रियाओं और सख्त मानकों पर चलती है।
सिम्पसन का कोचिंग टूलकिट विशिष्ट था। वे—
यही ढांचा आगे मार्क टेलर और फिर स्टीव वॉ की टीमों की रीढ़ बना। ‘विनिंग हैबिट’ कोई नारा नहीं था; यह रोजमर्रा का व्यवहार था—समय पर ट्रेनिंग, एक जैसी वार्म-अप रूटीन, फील्डिंग में 100% कमिटमेंट और मैच के बाद ईमानदार रिव्यू।
इंटरनेशनल के बाहर भी उनका प्रभाव फैला। इंग्लैंड में लेस्टरशायर और लैंकाशायर के साथ कोचिंग ने काउंटी सिस्टम में प्रोसेस-ड्रिवन क्रिकेट को बढ़ावा दिया। बाद में उन्होंने नीदरलैंड्स को 2007 विश्व कप के लिए क्वालिफाई कराने में अहम भूमिका निभाई—यह दिखाता है कि वे सिर्फ एलीट टीमों के कोच नहीं थे, वे स्ट्रक्चर बनाना जानते थे।
सम्मान भी आए—1965 में विस्डन क्रिकेटर ऑफ द ईयर, आईसीसी हॉल ऑफ फेम और ऑस्ट्रेलियन क्रिकेट हॉल ऑफ फेम की सदस्यता। सरकार ने 1978 में उन्हें मेम्बर ऑफ द ऑर्डर ऑफ ऑस्ट्रेलिया (AM) से सम्मानित किया, जिसे 2007 में ऑफिसर (AO) में अपग्रेड किया गया—कोच, कंसल्टेंट और एडमिनिस्ट्रेटर के रूप में उनके योगदान को मान्यता मिली।
भारत से उनका जुड़ाव पुराना और दिलचस्प रहा। 1977-78 की घरेलू सीरीज में उनकी वापसी ने ऑस्ट्रेलिया-भारत प्रतिद्वंद्विता को नया रंग दिया। बाद में 1987 विश्व कप के दौरान उपमहाद्वीप की पिचों पर ऑस्ट्रेलिया की जीत ने एशियाई परिस्थितियों में उनकी रणनीतियों की मजबूती साबित की—धीमी पिच, गर्मी, शोर—सबके बीच टीम ने प्रक्रिया से रास्ता निकाला।
अगर आप उनकी कोचिंग फिलॉसफी को एक लाइन में बांधना चाहें तो वह यह होगी—“बेहतर आदतें, बेहतर परिणाम।” मैदान पर हर छोटी आदत—बॉल उठाने का तरीका, थ्रो का एंगल, सिंगल लेने का कॉल—मैच के आखिरी पांच ओवर में बड़े फर्क में बदलती है। सिम्पसन ने ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट को यही माइक्रो-एज देना सिखाया।
उनके समय के कई खिलाड़ियों ने अक्सर बताया कि सिम्पसन के साथ काम करना आसान नहीं था—पर वही सख्ती बड़े मैचों में ठंडे दिमाग और अनुशासन में बदलती। एलन बॉर्डर की टीम में आत्मविश्वास की जो लौ जली, उसने आगे की पीढ़ियों—मार्क टेलर, स्टीव वॉ, रिकी पोंटिंग—तक एक संस्कृति के रूप में खुद को ट्रांसफर किया।
उनकी विरासत सांख्यिकीय रिकॉर्ड्स से कहीं आगे है। उन्होंने दिखाया कि टेस्ट क्रिकेट की ‘लंबी सांस’ और वनडे क्रिकेट की ‘तीखी धार’ साथ-साथ संभव हैं—बशर्ते तैयारी पद्धतिगत हो और रोल्स क्रिस्टल क्लियर। आज जब टी20 लीग्स ग्लोबल कैलेंडर पर छाई हैं, तब भी ऑस्ट्रेलिया की बुनियादी अनुशासन-आधारित पहचान बनी हुई है—यह सिम्पसन स्कूल का असर है।
मुख्य पड़ाव एक नजर में—
क्रिकेट की भाषा में कहें तो सिम्पसन ने ऑस्ट्रेलिया को ‘प्लेबुक’ दी—पहले खिलाड़ियों के रूप में, फिर कोच के रूप में। उनके बिना 90 के दशक का ऑस्ट्रेलियाई प्रभुत्व शायद इतना ठोस और टिकाऊ नहीं होता। जाते-जाते वे हमें याद दिला गए कि महान टीमें प्रतिभा से नहीं, आदतों से बनती हैं।